Tuesday 3 October 2017

आओ सत्य की जय करें।

                   असत्य पर सत्य की, बुराई पर अच्छाई का महापर्व विजया दशमी हमे यह संदेश दे रहा है कि हम अपने अंतर्मन में बसे अपने  नकारात्मक सोच को पराजित करे, अपने मन, समाज एवं राष्ट्र के अंदर घटित हो रही बुराइयों को मिटायें। बुरी शक्तियां आज रावण से भी ज्यादा शक्तिशाली होकर समाज में व्याप्त हो गयी है। चाहे वह अनैतिक धन, दौलत, सम्पत्ति कमाने की लालसा के रूप में भ्रस्टाचार हो या अपूरित काम पिपासा मिटाने के लिए की जा रही बलात्कार, छेड़खानी और न जाने कितने रूपो में सत्य को, अच्छाई को ललकार रहा है।
एक बुराई और भी है हर अच्छे काम की भर्त्सना करना।
यह सत्य है कि किसी व्यक्ति का कोई भी कार्य 100 फीसदी सही नहीं हो सकती, कुछ न कुछ तो कमी रह ही जाती है। तो क्या हम उन कमियों को पकड़ कर समूल अच्छे कार्य का विरोध शुरू कर दे? नहीं न। होना यह चाहिए की हम गुण धर्म के आधार पर सार तत्व की विवेचना करें और सही गलत के प्रतिशतता के आधार पर अपना निर्णय दें।
     अगर हम व्यक्तिगत स्तर पर बात करें तो पाते हैं कि सत्य का साथ मौजूदा परिप्रेक्ष में कठिन तो है, लेकिन चिरकालीन सुखदायी यही तो है। अच्छे कार्य करना,अच्छा व्यक्ति बनना कठिन है,सहज नहीं । यह एक दिन में सम्भव भी नहीं। इसके लिए प्रत्येक क्षण प्रयास करते रहना पड़ता है, पर अगर प्रयास सच्चे मन से किया जा रहा है, तो सच्चे लोगों का साथ भी सहायक हो जाता है।
        जब हम इसी बात को राष्ट्र स्तर पर देखे तो पाएंगे कि हमारे देश का अतीत गौरवमयी रही है परंतु जब से इसपर विदेशी आक्रांताओं, मलेच्छो की नज़र पड़ी, सचमुच में नज़र ही लग गयी। देश का न धन बचा, न धर्म और न ही इज्जत। माँ बेटियां इन लुटेरो के आगे बलत्कृत होती रही, हिन्दू धर्म की महानता पर कालिख पोत दी गयी। हिन्दू कहलाना अपने आप में गाली बन गया। लुटेरो ने सब कुछ तहस नहस कर रख दिया। हमारी सारी धार्मिक पुस्तकों, गौरबमयी इतिहास की किताबो को जला डाला और तो और हमारे देश के संसाधनों का जोंक की तरह शोषण के लिए यहीं बस गए। इस क्रम में उन्होंने अनेको महिलाओं से विवाह करके, रखैल रखकर, बलात्कार कर अपने जैसे रक्तविजो को पैदा करते गए। इन रक्तबीजों की बढती संख्या को और बढ़ाने के लिए शासक बन बैठे लुटेरो ने हिन्दू धर्म अनुयायियों पर तमाम तरह से मुस्लिम  धर्म अपनाने के लिए प्रलोभन, भय, दंड दिया, जजिया कर लगाया। आजादी के समय तक इनकी संख्या इतनी बढ़ गयी की पाक और बांग्लादेश के रूप में भारत का विभाजन करना पड़ गया। इतने सालों की पराधीनता में सब कुछ तबाह हो चूका है।
      संयोग ऐसा रहा की आजादी के 60 साल बाद तक बनती रही सरकार ने इस देश की गौरबमयी गाथा को लौटाने, अपनी सभ्यता संस्कृति को पुनर्स्थापित करने के लिए अब तक कुछ नहीं किया। परन्तु समय बदला है। चेतना जागृत हुयी है। नागरिको में अपनी गौरब के प्रति जागी चेतना नये युग के प्रारंभ का संचार कर रही है। देश का पुनर्निर्माण शुरू हो चुकी है।
 अतः जिस  देश में सैकड़ो साल से कुछ अच्छा कार्य ही न किया गया हो, उस देश का सुधार किसी एक व्यक्ति से महज दो चार में करने की अपेक्षा करना भी  गलत है। पूर्ण विश्वास के साथ पूर्ण सहयोग ही हर अच्छे कार्य की पूर्णता में सहायक होती है।
मौजूदा समय हिन्दू समाज के लिए अत्यंत चुनौतीपूर्ण है। सकल विश्व इस्लामी रक्तबीज से पीड़ित है। कितने राष्ट्र अपना ऐतिहासिक, धार्मिक अस्तित्व खो   चुके है। यहां तक की भारतवर्ष का दो बड़ा हिस्सा पाकिस्तान और बांग्लादेश के रूप में हमसे अलग हो चूका है और अब कश्मीर, केरल, बंगाल का नंबर है। वे सुनियोजित तरीके से पूरे भारत को निगलने के प्रयास में लगे है। यहां तक की हमारे ही कुछ राष्ट्रविरोधी नेता इनका साथ दे रहे हैं। इन रक्तबीजों, पापियों का समूल नाश कीजिये। अच्छी शक्तियों की आलोचना कर, विरोध कर उन्हें कमजोर मत कीजिये। भविष्य का नज़ारा स्पस्ट है। राष्ट्रवादी बनो या विश्व के नक़्शे से मिट जाओ। मानवभक्षी रोहिंग्या मुसालमान आपको चिकेन की तरह खाने के लिए आपके देश में आ चुके हैं।

हिन्दू समाज की एकता के लिए वर्ण व्यवस्था अपनाइये।

हमारी आर्य ऋषि परम्परा जाति पाती में विश्वास नहीं करती वरन वर्ण व्यवस्था में विश्वास करती है, जहां जन्म के अनुसार नहीं बल्कि कर्म के अनुसार व्यक्ति का वर्ण निर्धारित होता है। यानि  ब्राह्मण का कर्म कर रहे व्यक्ति का पुत्र यदि सेवा कार्य कर रहा है तो वह शुद्र होता है तथा इसी प्रकार एक शुद्र का कर्म कर रहे व्यक्ति का पुत्र पुत्री क्षत्रिय, वैश्य , ब्राह्मण हो सकता है। गौरतलब है कि कोई भी वर्ण ऊँचा नीचा नहीं है।
यह व्यवस्था पूर्व वैदिक काल से प्रारंभ होकर उत्तरवैदिक काल में दृढ़ होती गयी और जिस वर्ण का कर्म करने वाले व्यक्ति के घर पुत्र पुत्री का जन्म होने लगा, संतान अपने माता पिता का वर्ण धारण करने लगा, जो धीरे धीरे जाति में बदल गयी।
यह व्यवस्था 7वीं सदी तक आते आते और भी निश्चित होती गयी। अब तक राजतन्त्र प्रशासन की व्यवस्था बन चुकी थी।प्रशासन में सहयोग  हेतु लिखने पढ़ने वाले व्यक्तियों की आवश्यकता महसूस की जाने लगी थी। अतःइन चारों वर्णो में जो भी व्यक्ति लिखने पढ़ने का कार्य करने लगे, उसे एक नई जाति लेखक कहा जाने लगा। जो बाद में भगवान चित्रगुप्त के संतान माने जाने लगे। चित्रगुप्त की काया से उतपन्न माने जाने के कारण लेखको को कायस्थ भी कहा जाने लगा।
समाज में ऊंच नीच का जहर घोलती जाति व्यवस्था हिन्दू समाज का अब तक अहित ही करती आई है। ब्राह्मण वर्ण को श्रेष्ठ और क्रमशः शुद्र वर्ण को निकृष्ठ घोषित करना समाज के प्रभुत्वसंपन्न लोगों की चाल और शोषण का हथियार था, जिसने शुद्रो को हिन्दू धर्म त्याग कर बौद्ध , मुस्लिम या ईसाई धर्म अपना कर समानता पाने की मृग मरीचिका दिखाती आयी है। अनेको लोग आज भी इस जाति व्यवस्था में शोषित हैं।
अगर हम वर्ण व्यवस्था में पुनः विश्वास रख सके, जैसा की स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने आर्य समाज की स्थापना कर हमें पुनः वेदों की ओर लौटने का संदेश दिया, तो हिन्दू समाज पुनः एकजुट हो सकता है। इसलिए हमे हिन्दू समाज के प्रत्येक व्यक्ति से विना उसके जाति पूछे मन, वचन और कर्म से समान व्यवहार  करने  और सम्भव मदद को तैयार रहने की जरूरत है। मैंने अपने जीवन व्यवहार में यही तरीका अपनाया है।
एक निवेदन और, यदि हमें वर्ण व्यवस्था में वास्तव में यकीन है तो हम सभी लिखने पढ़ने वाले यानि कलम को अपनी जीविका के रूप में अपनाने वाले लोगों के इष्ट देव भगवान चित्रगुप्त हुए। अतः आग्रह होगा की आने वाले चित्रगुप्त पूजन के दिन हम भगवान चित्रगुप्त की पूजा करे।यह जाति व्यवस्था को नकार कर वर्ण व्यवस्था को अपनाने में भी सहायक होगा।
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धन्यवाद।
कमल किशोर प्रसाद,chatra, झारखण्ड
tikhimirchiofadvocatekamal.blogspot.com

दूसरों के लिए कुछ करने में है खुशी।

एक यहूदी कहावत है- "ईश्वर के सामने रोओ, आदमी के सामने हँसो।"
           यह एक अच्छा गुर है, जीने का। हंसमुख व्यक्ति से सभी खुश रहते है, चाहे वह कितना ही बकवास करे। मुझे अपनी बकवास से लोगों को खुश देखने का अनुभव कईं बार हुआ है। दुनिया में ज्यादातर लोगों को आपके सुख में दिलचस्पी तो होती है,दुख में नहीं।
           असली खुशी तो दूसरों के लिए कुछ करने में है। मुझे, सौभाग्य से,अपने जीवन और कैरियर में ऐसे अवसर और संयोग बहुत मिले की मैं दूसरों के लिए कुछ कर पाया। यदि दूसरे के लिए अपने दिल में जगह हो और मदद की लालसा, तो आपके दिन प्रतिदिन के कार्य व्यवहार में दुखी, संतप्त, मदद के आकांक्षी अनेको व्यक्ति, पशु, पक्षी मिल जायेंगे,जो मदद की आस में बांहे फैलाये खड़े हैं। फिर देर किस बात की? सारा जहाँ आपका है और आप सारे जहाँ के।