Friday 29 December 2017

मेरी शायरी

 हुश्न की तारीफ मालूम नहीं ऐ हसीना।
पर मेरी नज़रो में हसीं वो है जो तुझ जैसा है।।

किस हैसियत से बात करूं ऐ दिलरुबा,
ये इत्तिफाक  नहीं अलहदा।
गर अहसास ही काफी है,
 तू कभी मेरी थी।

बीतते हुए साल में बस यही है इंतिज़ा,
 जो भी रिश्ता रखना चाहो, रख लेना।
 बस मौसम की तरह मत बदल जाना।

Sunday 24 December 2017

चर्मकारों का वास्तविक इतिहास।


Live Halchal से साभार।
अभी कुछ समय पूर्व तक जिन्हें करोड़ों हिन्दू छूने से कतराते थे और उन्हें घर के अन्दर भी आने की मनाही थी, वो असल में चंवरवंश के क्षत्रीय हैं।  यह खुलासा डॉक्टर विजय सोनकर की पुस्तक – हिन्दू चर्ममारी जाति:एक स्वर्णिम गौरवशाली राजवंशीय इतिहास में हुआ है।  इस किताब में उन्होंने लिखा है कि विदेशी विद्वान् कर्नल टॉड ने अपनी पुस्तक राजस्थान का इतिहास में चंवरवंश के बारे में बहुत विस्तार में लिखा है।  इतना ही नहीं महाभारत के अनुशासन पर्व में भी इस वंश का उल्लेख है। वर्ण व्यवस्था को क्रूर और भेद-भाव बनाने वाले हिन्दू हैं, विदेशी आक्रमणकारी थे! उम्मीद है, धीरे धीरे पूरा सच सामने आएगा लेकिन, अभी के लिए हम आपको बताने जा रहे हैं की ‘चमार’ शब्द आखिर हिन्दू समाज में आया कैसे!


जब भारत पर तुर्कियों का राज था, उस सदी में इस वंश का शासन भारत के पश्चिमी भाग में था।  और उस समय उनके प्रतापी राजा थे चंवर सेन।  इस राज परिवार के वैवाहिक सम्बन्ध बप्पा रावल के वंश के साथ थे। राना सांगा और उनकी पत्नी झाली रानी ने संत रैदासजी जो की चंवरवंश के थे, को मेवाड़ का राजगुरु बनाया था।  यह चित्तोड़ के किले में बाकायदा प्रार्थना करते थे।  आज के समाज में जिन्हें चमार बुलाया जाता है, उनका इतिहास में कहीं भी उल्लेख नहीं है।
डॉक्टर विजय सोनकर के अनुसार प्राचीनकाल में ना तो यह शब्द पाया जाता है, ना हीं इस नाम की कोई जाति है।  ऋग्वेद में बुनकरों का उल्लेख तो है, पर वहाँ भी उन्हें चमार नहीं बल्कि तुतुवाय के नाम से सम्भोदित किया गया है।  सोनकर कहते हैं कि चमार शब्द का उपयोग पह GBली बार सिकंदर लोदी ने किया था।  मुस्लिम अक्रान्ताओं के धार्मिक उत्पीड़न का अहिंसक तरीके से सर्वप्रथम जवाब देने की कोशिश संत रैदास ने की थी।  उन्हे दबाने के लिए सिकंदर लोदी ने बलपूर्वक उन्हें चरम कर्म में धकेल दिया था।  और उन्हें अपमानित करने के लिए पहली बार “ चमार “ शब्द का उपयोग किया था।


सोनकर आगे बताते हैं कि संत रैदास ने सारी दुनिया के सामने मुल्ला सदना फ़क़ीर को शास्त्रार्थ में हरा दिया था।  मुल्ला फ़क़ीर ने तो अपनी हार मान ली और वह हिन्दू बन गए, परन्तु सिकंदर लोदी आग बबूला हो गए।  उन्होंने संत को कारागार में डाल दिया, पर जल्द ही चंवरवंश के वीरों ने दिल्ली को घेर लिया और लोदी को संत को छोड़ना ही पड़ा।


इस वर्तमान पीढ़ी की विडंबना देखिये की हम इस महान संत के बलिदान से अनभिज्ञ हैं।  कमाल की बात तो यह है कि  इतने ज़ुल्म सहने के बाद भी इस वंश के वीर हिंदु ही बने रहे और उन्होंने इस्लाम को नहीं अपनाया।  गलती हमारे समाज में है।  हम हिन्दुओं को अपने से ज्यादा भरोसा वामपंथियों और अंग्रेजों के लेखन पर है।  उनके कहे झूठ के चलते हमने अपने भाइयों को अछूत बना लिया।
आज हमारा हिन्दू समाज अगर कायम है, तो उसमें बहुत बड़ा बलिदान इस वंश के वीरों का है।  जिन्होंने नीचे काम करना स्वीकार किया, पर इस्लाम नहीं अपनाया।  उस समय या तो आप इस्लाम को अपना सकते थे, या मौत को गले लगा सकते था, अपने जनपद/प्रदेश से भाग सकते थे, या फिर आप वो काम करने को हामी भर सकते थे जो अन्य लोग नहीं करना चाहते थे।  यह पढने के बाद अब तो आपको विश्वास हो जाना चाहिए की हमारे बीच कोई भी चमार  अथवा अछूत नहीं है।
हमें अपनी पूरी उर्जा, हिन्दुओं को एकीकृत करने में लगा देनी चाहिए! 

जवाहरलाल नेहरू की अदूरदर्शी नीति।


*जवाहरलाल नेहरू की अदूरदर्शी और मूर्खताओं की सज़ा, जो हम आज तक भुगत रहे हैं।

*1. कोको आइसलैंड* - 1950 में नेहरू ने भारत का 'कोको द्वीप समूह' (Google Map location
-14.100000, 93.365000) बर्मा को गिफ्ट दे दिया। यह द्वीप समूह कोलकाता से 900 KM दूर समंदर में है। बाद में बर्मा ने यह द्वीप समूह चीन को दे दिया, जहाँ से आज चीन भारत पर नजर रखता है।

*2. काबू वैली मणिपुर -* नेहरू ने 13 Jan 1954 को भारत के मणिपुर प्रांत की काबू वैली मित्रता के तौर पर बर्मा को दी। काबू वैली का क्षेत्रफल
लगभह 11,000 वर्ग किमी है और कहते हैं कि यह कश्मीर से भी अधिक खूबसरत है।

आज बर्मा ने काबू वैली का कुछ हिस्सा चीन को दे रखा है। चीन यहां से भी भारत विरोधी गतिविधियों को अंजाम देता है।

*3भारत - नेपाल विलय* - 1952 में नेपाल के तत्कालीन राजा त्रिभुवन विक्रम शाह ने नेपाल के भारत में विलय का प्रस्ताव नेहरू के सामने रखा।

लेकिन नेहरू ने ये कहकर उनकी बात टाल दी कि इस विलय से दोनों देशों को फायदे की बजाय नुकसान ज्यादा होगा। यही नहीं, इससे नेपाल का पर्यटन भी खत्म हो जाएगा।

*जबकि असल वजह ये थी की नेपाल जम्मू कश्मीर की तरह विशेष अधिकार के तहत अपनी हिन्दू राष्ट्र की पहचान को बनाये रखना चहता था जो की नेहरू को मंजूर नही थी*

*4 सुरक्षा परिषद स्थायी सीट* - नेहरू ने 1953 में अमेरिका की उस पेशकश को ठुकरा दिया था, जिसमें भारत को सुरक्षा परिषद ( United Nations) में स्थायी सदस्य के तौर पर शामिल होने को कहा गया था। नेहरू ने इसकी जगह चीन को सुरक्षा परिषद
में शामिल करने की सलाह दे डाली। चीन आज पाकिस्तान का हम दर्द बना हुआ है। वह पाक को बचाने के लिए भारत के कई प्रस्तावों को सुरक्षा
परिषद में नामंजूर कर चुका है।

हाल ही उसने आतंकी मसूद अजहर को अंतरराष्ट्रीय आतंकी घोषित करने के भारतीत प्रस्ताव को कई बार वीटो किया है।

*5.  जवाहरलाल नेहरू और लेडी मांउटबेटन* - लेडी माउंटबेटन की बेटी पामेला ने अपनी किताब में लिखा है कि नेहरू और लेडी माउन्टबेटन के बीच अंतरंग संबंध थे। लॉर्ड माउंटबेटन भी दोनों को अकेला छोड़ देते थे। लोग मानते हैं कि ऐसा कर लॉर्ड माउंटबेटन ने जवाहरलाल नेहरू से अनेक राजनैतिक निर्णय करवाए थे जिनमें कश्मीर में युद्ध विराम व सयुंक्त राष्ट्र के
हस्ताक्षेप का निर्णय भी शामिल है।

*6 पंचशील समझौता* - नेहरू चीन से दोस्ती के लिए बहुत ज्यादा उत्सुक थे। 1954 में उन्होंने चीन के साथ पंचशील समझौता किया और तिब्बत को चीन के हिस्से के रूप में मान्यता दे दी। 1962 में इसी चीन ने भारत पर हमला किया और चीन की सेना इसी
तिब्बत से भारत की सीमा में दाखिल हुई।

*7. 1962 भारत चीन युद्ध* - चीनी सेना ने 1962 में भारत को हराया था। हार के कारणों को जानने के लिए भारत सरकार ने ले. जनरल हेंडरसन और कमान्डेंट ब्रिगेडियर भगत के नेतृत्व में एक समिति बनाई थी।

दोनों अधिकारियों ने अपनी रिपोर्ट में हार के लिए प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को जिम्मेदार ठहराया था।

रिपोर्ट के अनुसार चीनी सेना जब अरुणाचल प्रदेश,असम, सिक्किम तक अंदर घुस आई थी, तब भी नेहरू ने
हिंदी-चीनी भाई-भाई का नारा लगाते हुए भारतीय सेना को चीन के खिलाफ एक्शन लेने से रोके रखा। परिणाम स्वरूप हमारे कश्मीर का लगभग
14000 वर्ग किमी भाग पर चीन ने कब्जा कर लिया।

इसमें कैलाश पर्वत, मानसरोवर और अन्य तीर्थ स्थान आते हैं।

*भारत का सही इतिहास जानना आपका हक़ है*

पद्मावती फिल्म के द्वारा हिन्दू इतिहास का मानमर्दन का कुत्सित प्रयास।


पद्मावती फ़िल्म का ट्रेलर लांच हो चुका है,,,  इस लड़ाई को किसी जाति विशेष की लड़ाई न बनने दें,ये पूरे भारतीय हिन्दू समाज के मान, मर्यादा,अस्मिता और ईज्जत की लड़ाई है । *महापुरुष और वीरांगनाऐ* किसी एक जाति के नहीं होते अपितु पूरे धर्म की विरासत होते हैं ।
दोस्तों, आपकी जानकारी के लिए मैं बता दूँ कि आजादी के बाद से ही भारत के न्यायपालिका, मीडिया, फिल्म ,शिक्षा आदि में बामपंथी और हिन्दू विरोधी भरे पड़े है। ये हिन्दू समाज की उदारता,सहिष्णुता और सरलता है कि लोग हिन्दू समाज को निशाने पर रखकर  हिन्दू धर्म की हर मान्यता,प्रतीक चिन्ह, देवी देवता की खिल्ली उड़ाते रहे, इसी को अपनी दुकानदारी का विषय बनाते रहे, और हिन्दू समाज चुप बैठ तमाशा देखता रहा। इसी कड़ी में भारत के महापुरुषों का चरित्र हनन और मज़ाक बनाना जारी है। यह विरोध इसलिए भी जरूरी है।
मित्रो, आप खुद देख लीजिए न्यायपालिका हिन्दू धर्म की हर मान्यता में अपनी टांग अड़ाता है। मसलन, होली में पानी की बर्बादी होती है, दीवाली में प्रदूषण लेकिन अंग्रेजी नववर्ष की प्रदूषण, शोर शराबा, बकरीद में जीव हत्या नहीं दिखायी पड़ती।मीडिया उसी तरह देश और हिन्दू धर्म विरोधी अपना रुख दर्शाता है। इतिहास की पुस्तकों में बामपंथियों ने झूठ का पुलिंदा भर रखा है  मसलन- आर्य भारत के मूल निवासी नहीं थे, आर्य गौमांस खाते थे, सिकंदर विश्व विजेता था यानि उसने भारत को भी जीत लिया था, अकबर महान था, अकबर की शादी जोधपुर की राजकुमारी जोधाबाई से हुयी थी  आदि आदि। फिल्मो की बात करें तो आप अनेको फिल्मो मसलन पीके आदि में हिन्दू देवी देवता, मान्यता,पूजा पाठ आदि को मजाक बनाते, भौंडे तरीके से दर्शाते और इस्लाम के प्रति श्रद्धा दिखाते फिल्माया जाता है। आपको  याद होगा दीपा मेहता ने हिन्दू संस्कृति के पांचों स्तम्भ क्षिति, जल, पावक,गगन, समीर को झुठलाने हेतु वाटर, फायर आदि फिल्म बनाई थी। जिन लोगों ने मेरे साथ वर्ष 1999 - 2002 सत्र में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में विद्याध्ययन किया हो,उन्हें याद होगा की कैसे काशी में दीपा का विरोध हुआ और वह वाटर फिल्म की शूटिंग नहीं कर पाई तथा इसे कनाडा में पूरा की। आज  बाजीराव मस्तानी और रानी पद्मिनी जैसे फिल्म बनाकर संजय लीला भंसाली महान योद्धा बाजीराव और अप्रतिम सौन्दर्य की देवी महान वीरांगना  रानी पद्मिनी का चरित्र हनन कर रहे और दीपा मेहता छाप फिल्मकारों का काम आगे बढ़ा रहे। आखिर भारतीय महापुरुष और देवी देवता ही बम्बईया छाप गन्दी फिल्मो का विषय कयूं ? अगरबत्ती और चप्पल पर हिन्दू देवी देवता का ही फोटो कयूं डाला जाता है?

दोस्तों, हमे इसे समझना ही  होगा। आप तथाकथित प्रगतिशील यानि सेकुलर बनकर आँख मूंदे मत रहिये। दूसरे धर्म के लोग चाहे कितने भी आधुनिक कयूं न हों, अपने धर्म और धार्मिक मान्यता,चिन्ह, महापुरुषों का अपमान या खिल्ली उडाना जरा भी पसंद नहीं करते, फिर हम अगर अपने धर्म, राष्ट्र के  सम्मान के लिए उठ खड़े होंगे तो पिछड़ा,दकियानुष,कट्टरपंथी नहीं कहलायेंगे, बल्कि धर्मभक्त,राष्ट्रभक्त और स्वाभिमानी कहलायेंगे। इसलिए उठ खड़ा होइए, विरोध कीजिये और अगर कुछ नहीं कर सकते तो खुद जागरूक बनिये और दूसरे को भी जगाइये।
यकीन मानिए, हमे विधर्म और विधर्मियो से नफरत नहीं पर अपने धर्म और धर्म प्रतिक को अपमानित कर दूसरे का सम्मान भी बर्दाश्त नहीं।
अपने देश, धर्म से जुड़े मान्यता, प्रतिक,देवी देवता और महापुरुषों की रक्षा हेतु अगर हिन्दू युवा आज उठ खड़ा नहीं हुआ तो कल फिर कोई अन्य महापुरुष या देवी देवता गन्दी फिल्मो का विषय होगा या फिर कोई अन्य रानी पद्मिनी का किरदार फिल्मो में अलाउद्दीन जैसे लुटेरा,बहशी के आगे मुजरा करते दिखेगी।
समय बदल रहा है। हिन्दू समाज देश समाज में जारी हर अपमानवाली कार्यो के विरूद्ध धर्मयुद्ध कर रहा, उसका हिस्सा बनिये।
अतः देश भर में वाइरल इस कविता को एक बार फिर शेयर कर रहा हूँ...इसे इतना शेयर करो कि आपका हर शेयर हिन्दू राष्ट्र,धर्म के विरोधी हर संजय लीला भंसाली अथवा अन्य फिल्मकारों के मुँह पर तमाचे की तरह लगे.. पद्मावती रानी के त्याग का अल्प इतिहास बताते हुए संजय लीला भंसाली को चेतावनी -

*बॉलीवुड में भांड भरे है, नीयत इनकी काली है*...
*इतिहासों को बदल रहे, संजय लीला भंसाली है*...

*चालीस युद्ध जीतने वाले को ना वीर बताया था*...
*संजय तुमने बाजीराव को बस आशिक़ दर्शाया था*...

*सहनशीलता की संजय हर बात पुरानी छोड़ चुके*...
*देश धर्म की खातिर हम कितनी मस्तानी छोड़ चुके*...

*अपराध जघन्य है तेरा, दोषी बॉलीवुड सारा है*...
*इसलिए 'करणी सेना' ने सेट पर जाकर मारा है*...

*संजय तुमको मर्द मानता, जो अजमेर भी जाते तुम*...
*दरगाह वाले हाजी का भी नरसंहार दिखाते तुम*...

*सच्चा कलमकार हूँ संजय, दर्पण तुम्हे दिखाता हूँ*...
*जौहर पदमा रानी का, तुमको आज बताता हूँ*...

*सुन्दर रूप देख रानी का बैर लिया था खिलजी ने*...
*चित्तौड़ दुर्ग का कोना कोना घेर लिया था खिलजी ने*...

*मांस नोचते गिद्धों से, लड़ते वो शाकाहारी थे*...
*मुट्ठी भर थे राजपूत, लेकिन मुगलो पर भारी थे*...

*राजपूतो की देख वीरता, खिलजी उस दिन काँप गया*...
*लड़कर जीत नहीं सकता वो ये सच्चाई भांप गया*...

*राजा रतन सिंह से बोला, राजा इतना काम करो*...
*हिंसा में नुकसान सभी का अभी युद्ध विराम करो*...

*पैगाम हमारा जाकर रानी पद्मावती को बतला दो*...
*चेहरा विश्व सुंदरी का बस दर्पण में ही दिखला दो*...

*राजा ने रानी से बोला रानी मान गयी थी जी*...
*चित्तौड़ नहीं ढहने दूंगी ये रानी ठान गयी थी जी*...

*अगले दिन चित्तौड़ में खिलजी सेनापति के संग आया*...
*समकक्ष रूप चंद्रमा सा पद्मावती ने दिखलाया*...

*रूप देखकर रानी का खिलजी घायल सा लगता था*...
*दुष्ट दरिंदा पापी वो पागल पागल सा लगता था*...

*रतन सिंह थे भोले राजा उस खिलजी से   छले गए*...
*कैद किया खिलजी ने उनको जेलखाने में चले गए*...

*खिलजी ने सन्देश दिया चित्तौड़ की शान बक्श दूंगा*...
*मेरी रानी बन जाओ,,,,, राजा की जान बक्श दूंगा*...

*रानी ने सन्देश लिखा,, मैं तन मन अर्पण करती हूँ*...
*संग में नौ सौ दासी है और स्वयं समर्पण करती हूँ*...

*सभी पालकी में रानी ने बस सेना ही बिठाई थी*...
*सारी पालकी उस दुर्गा ने खिलजी को भिजवाई थी*...

*सेना भेजकर रानी ने जय जय श्री राम बोल दिया*...
*अग्नि कुंड तैयार किया था और साका भी खोल दिया*...

*मिली सूचना सारे सैनिक, मौत के घाट उतार दिए*...
*और दुष्ट खिलजी ने राजा रतन सिंह भी मार दिए*...

*मानो अग्नि कुंड की अग्नि उस दिन पानी पानी थी*...
*सोलह हजार नारियो के संग जलती पदमा रानी थी*...

*सच्चाई को दिखलाओ,,,, हम सभी सत्य स्वीकारेंगे*...
*झूठ दिखाओगे संजय,,, तो मुम्बई आकर मारेंगे*...

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निवेदक
कमल किशोर प्रसाद,                                          विधि सलाहकार,चतरा,झारखण्ड ।
tikhimirchiofadvocatekamal.blogspot.com

अपनापन "पिता-बेटी"* का


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 "पापा मैंने आपके लिए हलवा बनाया है" 11साल की बेटी अपने पिता से बोली जो कि अभी office से घर मे घुसा ही था ,

पिता "वाह क्या बात है ,ला कर खिलाओ फिर पापा को,"

बेटी दौड़ती रसोई मे गई और बडा कटोरा भरकर हलवा लेकर आई ..
पिता ने खाना शुरू किया और बेटी को देखा ..
पिता की आँखों मे आँसू थे...

-क्या हुआ पापा हलवा अच्छा नही लगा

पिता- नही मेरी बेटी बहुत अच्छा बना है ,

और देखते देखते पूरा कटोरा खाली कर दिया; इतने मे माँ बाथरूम से नहाकर बाहर आई ,
और बोली- "ला मुझे भी खिला तेरा हलवा"

पिता ने बेटी को 50 रु इनाम मे दिए , बेटी खुशी से मम्मी के लिए रसोई से हलवा लेकर आई मगर ये क्या जैसे ही उसने हलवा की पहली चम्मच मुंह मे डाली तो तुरंत थूक दिया और बोली- "ये क्या बनाया है, ये कोई हलवा है, इसमें तो चीनी नही नमक भरा है , और आप इसे कैसे खा गये ये तो जहर हैं , मेरे बनाये खाने मे तो कभी नमक मिर्च कम है तेज है कहते रहते हो ओर बेटी को बजाय कुछ कहने के इनाम देते हो...."

पिता-(हंसते हुए)- "पगली तेरा मेरा तो जीवन भर का साथ है, रिश्ता है पति पत्नी का जिसमें नौकझौक रूठना मनाना सब चलता है; मगर ये तो बेटी है कल चली जाएगी, मगर आज इसे वो एहसास वो अपनापन महसूस हुआ जो मुझे इसके जन्म के समय हुआ था। आज इसने बडे प्यार से पहली बार मेरे लिए कुछ बनाया है, फिर वो जैसा भी हो मेरे लिए सबसे बेहतर और सबसे स्वादिष्ट है; ये बेटियां अपने पापा की परियां , और राजकुमारी होती है जैसे तुम अपने पापा की हो ..."

वो रोते हुए पति के सीने से लग गई और  सोच रही थी
*इसीलिए हर लडकी अपने पति मे अपने पापा की छवि ढूंढती है..*

दोस्तों यही सच है हर बेटी अपने पिता के बडे करीब होती है या यूं कहे कलेजे का टुकड़ा इसीलिए शादी मे विदाई के समय सबसे ज्यादा पिता ही रोता है ....

इसीलिए हर पिता हर समय अपनी बेटी की फिक्र करता रहता है !

धन्यवाद

पत्नी की फटकार

पत्नी की फटकार का महत्व-

              पत्नी की फटकार है अद्भुत,
             अद्भुत है पत्नी की मार।
             पत्नी के ताने सुन सुन कर,
             खुलते ज्ञान चक्षु के द्वार।।

दस्यु सुना उत्तर पत्नी का
भरम हो गया अंतर्ध्यान।
हार गई पत्नी से दस्युता
बाल्मिकी हुए कवि महान।।

             पत्नी से जब मार पड़ी तब,
             रोया फूट फूट नादान।
             कालिदास अनपढ़ मतिमंदा,
             हो गए कवि विद्वान महान।।

पत्नी की फटकार सुनी जब,
तुलसी भागे छोड़ मकान।
राम चरित मानस रच डाला,
जग में बन गए भक्त महान।।

             पत्नी छोड़ भगे थे जो जो,
             वही बने विद्वान महान।
             गौतम बुद्ध महावीर तीर्थंकर,
             पत्नी छोड़ बने भगवान।।

पत्नी छोड़ जो भागे मोदी
हुए आज हैं पंत प्रधान।।
अडवाणी ना छोड़ सके तो,
देख अभी तक हैं परेशान।।

             नहीं किया शादी पप्पू ने,
             नहीं सुनी पत्नी की तान।
             इसीलिए करता बकलोली,
             बना है मूर्ख मूढ़ नादान।।

हम भी पत्नी छोड़ न पाए,
इसीलिए तो हैं परेशान।
पत्नी छोड़ बनो सन्यासी,
पाओ मोक्ष और निर्वाण।।

पत्नी को समर्पित कर
आनन्द लीजिये
 💕🙏💕🙏

आरक्षण का चक्रव्यूह।

                जिसको आरक्षण दिया जा रहा है वो सामान्य आदमी बन ही नहीं पा रहा है....
जैसे किसी व्यक्ति को आरक्षण दिया गया और वो किसी सरकारी नौकरी में आ गया!अब उसका वेतन ₹5500 से₹50000 तक महीना है पर जब उसकी संतान हुई तो फिर वही से शुरुआत !
फिर वही गरीब पिछड़ा और सवर्णों के अत्याचार का मारा पैदा हुआ ।
उसका पिता लाखों रूपए सालाना कमा रहा है तथा उच्च पद पर आसीन है।सारी सरकारी सुविधाए ले रहा है।
वो खुद जिले के सबसे अच्छे स्कूल में पढ़ रहा है और सरकार उसे पिछड़ा मान रही है।
सदियों से सवर्णों के अत्याचार का शिकार मान रही है।
आपको आरक्षण देना है बिलकुल दो पर उसे नौकरी देने के बाद सामान्य तो बना दो ।
यह आरक्षण कब तक मिलता रहेगा उसे ?? इसकी भी कोई समय सीमा तो तय कर दो कि बस जाति विशेष में पैदा हो गया तो आरक्षण का हकदार हो गया।
*दादा जी जुल्म के मारे,
बाप जुल्म का मारा तथा पोता भी जुल्म का मारा!
वाह रे मेरे देश का दुर्भाग्य!*
जिस आरक्षण से उच्च पदस्थ अधिकारी , मन्त्री , प्रोफेसर , इंजीनियर, डॉक्टर भी पिछड़े ही रह जायें, ऐसे असफल अभियान को तुरंत बंद कर देना चाहिए ।
जिस कार्य से कोई आगे न बढ़ रहा हो उसे जारी रखना मूर्खतापूर्ण कार्य है।
हम में से कोई भी आरक्षण के खिलाफ नहीं, पर आरक्षण का आधार जातिगत ना होकर आर्थिक होना चाहिए।
""ऒर तत्काल प्रभाव से प्रमोशन में आरक्षण तो बंद होना ही चाहिए।नैतिकता भी यही कहती है।""
क्या कभी ऐसा हुआ है कि किसी मंदिर में प्रसाद बँट रहा हो तो एक व्यक्ति को चार बार मिल जाये ,और एक व्यक्ति लाइन में रहकर अपनी बारी का इंतजार ही करता रहे।
आरक्षण देना है तो उन गरीबों ,लाचारों को चुन चुन के दो जो बेचारे दो वक्त की रोटी को मोहताज हैं...चाहे वे अनपढ़ हो । चौकीदार , सफाई कर्मचारी ,सेक्युरिटी गार्ड कैसी भी नौकरी दो....हमें कोई आपत्ति नहीं।
ऐसे लोंगो को मुख्य धारा में लाना सरकार का सामाजिक उत्तरदायित्व है।
परन्तु भरे पेट वालों को बार बार 56 व्यंजन परोसने की यह नीति बंद होनी ही चाहिए।
जिसे एक बार आरक्षण मिल गया उसकी अगली पीढ़ियों को सामान्य मानना चाहिये और आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिये।

बामपंथी इतिहासकारो के लिखे इतिहास को आइना।

बाबर ने मुश्किल से कोई 4 वर्ष राज किया। हुमायूं को ठोक पीटकर भगा दिया। मुग़ल साम्राज्य की नींव अकबर ने डाली और जहाँगीर, शाहजहाँ से होते हुए औरंगजेब आते आते उखड़ गया।
कुल 100 वर्ष (अकबर 1556ई. से औरंगजेब 1658ई. तक) के समय के स्थिर शासन को मुग़ल काल नाम से इतिहास में एक पूरे पार्ट की तरह पढ़ाया जाता है....
मानो सृष्टि आरम्भ से आजतक के कालखण्ड में तीन भाग कर बीच के मध्यकाल तक इन्हीं का राज रहा....!
अब इस स्थिर (?) शासन की तीन चार पीढ़ी के लिए कई किताबें, पाठ्यक्रम, सामान्य ज्ञान, प्रतियोगिता परीक्षाओं में प्रश्न, विज्ञापनों में गीत, ....इतना हल्ला मचा रखा है, मानो पूरा मध्ययुग इन्हीं 100 वर्षों के इर्द गिर्द ही है।
जबकि उक्त समय में मेवाड़ इनके पास नहीं था। दक्षिण और पूर्व भी एक सपना ही था।
अब जरा विचार करें..... क्या भारत में अन्य तीन चार पीढ़ी और शताधिक वर्ष पर्यन्त राज्य करने वाले वंशों को इतना महत्त्व या स्थान मिला है ?

*अकेला विजयनगर साम्राज्य ही 300 वर्ष तक टिका रहा। हीरे माणिक्य की हम्पी नगर में मण्डियां लगती थीं।*

महाभारत युद्ध के बाद 1006 वर्ष तक जरासन्ध वंश के 22 राजाओं ने ।

5 प्रद्योत वंश के राजाओं ने 138 वर्ष ,

10 शैशुनागों ने 360 वर्षों तक ,

9 नन्दों ने 100 वर्षों तक ,

12 मौर्यों ने 316 वर्ष तक ,

10 शुंगों ने 300 वर्ष तक ,

4 कण्वों ने 85 वर्षों तक ,

33 आंध्रों ने 506 वर्ष तक ,

7 गुप्तों ने 245 वर्ष तक राज्य किया ।

फिर विक्रमादित्य ने 100 वर्षों तक राज्य किया था ।

इतने महान् सम्राट होने पर भी भारत के इतिहास में गुमनाम कर दिए गए।

उनका वर्णन करते समय इतिहासकारों को मुँह का कैंसर हो जाता है। सामान्य ज्ञान की किताबों में पन्ने कम पड़ जाते है। पाठ्यक्रम के पृष्ठ सिकुड़ जाते है।

 कोचिंग वालों की नानी मर जाती है। प्रतियोगी परीक्षकों के हृदय पर हल चल जाते हैं।

वामपंथी इतिहासकारों ने नेहरूवाद का मल भक्षण कर, जो उल्टियाँ की उसे ज्ञान समझ चाटने वाले चाटुकारों...!
तुम्हे धिक्कार है !!!

यह सब कैसे और किस उद्देश्य से किया गया ये अभी तक हम ठीक से समझ नहीं पाए हैं और ना हम समझने का प्रयास कर रहे हैं।


जय हिंद
जय भारत

जोधाबाई से अकबर के विवाह की झूठी कहानी।

जब भी मैं जोधाबाई और अकबर के विवाह प्रसंग को सुनता या देखता था तो मन में कुछ अनुत्तरित सवाल कौंधने लगते थे।
आन, बान और शान के लिए मर मिटने वाले, शूरवीरता के लिए पूरे विश्व मे प्रसिद्ध भारतीय क्षत्रिय, अपनी अस्मिता से क्या कभी इस तरह का समझौता कर सकते हैं??
हजारों की संख्या में एक साथ अग्नि कुंड में जौहर करने वाली क्षत्राणियों में से कोई स्वेच्छा से किसी मुगल से विवाह कर सकती हैं??
जोधा और अकबर की प्रेम कहानी पर केंद्रित अनेक फिल्में और टीवी धारावाहिक मेरे मन की टीस को और ज्यादा बड़ा देते। जब यह पीड़ा असहनीय हो गई तो एक दिन गुरुदेव श्री जे पी पाण्डेय जी से इस प्रसंग में इतिहास जानने की जिज्ञासा व्यक्त की तो गुरुवर ने अपने पुस्तकालय से अकबर के दरबारी 'अबुल फजल' द्वारा लिखित 'अकबरनामा' निकाल कर पढ़ने के लिए दी। उत्सुकतावश उसे एक ही बैठक में पूरा पढ़ डाला। पूरी किताब पढ़ने के बाद घोर आश्चर्य तब हुआ जब पूरी पुस्तक में जोधाबाई का कहीं कोई उल्लेख ही नही मिला। मेरी आश्चर्य मिश्रित जिज्ञासा को भांपते हुए गुरुवर श्री ने एक अन्य ऐतिहासिक ग्रंथ  'तुजुक-ए-जहांगिरी' जो जहांगीर की आत्मकथा है, दिया। इसमें भी आश्चर्यजनक रूप से जहांगीर ने अपनी मां जोधाबाई का एक भी बार जिक्र नही किया। हां कुछ स्थानों पर हीर कुँवर और हरका बाई का जिक्र जरूर था। अब जोधाबाई के बारे में सभी एतिहासिक दावे झूठे समझ आ रहे थे। कुछ और पुस्तकों और इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी के पश्चात हकीकत सामने आयी कि “जोधा बाई” का पूरे इतिहास में कहीं कोई नाम नहीं है।
इस खोजबीन में एक नई बात सामने आई जो बहुत चौकानें वाली है। इतिहास में दर्ज कुछ तथ्यों के आधार पर पता चला कि आमेर के राजा भारमल को दहेज में 'रुकमा' नाम की एक पर्सियन दासी भेंट की गई थी जिसकी एक छोटी पुत्री भी थी। रुकमा की बेटी होने के कारण उस लड़की को 'रुकमा-बिट्टी' नाम से बुलाते थे। आमेर की महारानी ने रुकमा बिट्टी को 'हीर कुँवर' नाम दिया। चूँकि हीर कुँवर का लालन पालन राजपूताना में हुआ इसलिए वह राजपूतों के रीति-रिवाजों से भली भांति परिचित थी। राजा भारमल उसे कभी हीर कुँवरनी तो कभी हरका कह कर बुलाते थे।
उत्तराधिकार के विवाद को लेकर जब पड़ोसी राजाओं ने राजा भारमल की सहायता करने से इनकार कर दिया तो उन्हें मजबूरन अकबर की सहायता लेनी पड़ी। सहायता के एवज में अकबर ने राजा भारमल की पुत्री से विवाह की शर्त रख दी तो राजा भारमल ने क्रोधित होकर प्रस्ताव ठुकरा दिया था। प्रस्ताव अस्वीकृत होने से नाराज होकर अकबर ने राजा भारमल को युद्ध की चुनौती दे दी। आपसी फूट के कारण आसपास के राजाओं ने राजा भारमल की सहायता करने से मना कर दिया। इस अप्रत्याशित स्थिति से राजा भारमल घबरा गए क्योंकि वे जानते थे कि अकबर की सेना उनकी सेना से बहुत बड़ी है सो युद्ध मे अकबर से जीतना संभव नही है।
चूंकि राजा भारमल अकबर की लंपटता से भली-भांति परिचित थे सो उन्होंने कूटनीति का सहारा लेते हुए अकबर के समक्ष संधि प्रस्ताव भेजा कि उन्हें अकबर का प्रस्ताव स्वीकार है वे मुगलो के साथ रिश्ता बनाने तैयार हैं। अकबर ने जैसे ही यह संधि प्रस्ताव सुना तो विवाह हेतु तुरंत आमेर पहुँच गया। राजा भारमल ने अकबर को बेवकूफ बनाकर अपनी परसियन दासी रुकमा की पुत्री हीर कुँवर का विवाह अकबर से करा दिया जिसे बाद में अकबर ने मरियम-उज-जमानी नाम दिया।
चूँकि राजा भारमल ने उसका कन्यादान किया था इसलिये ऐतिहासिक ग्रंथो में हीर कुँवरनी को राजा भारमल की पुत्री बता दिया। जबकि वास्तव में वह कच्छवाह राजकुमारी नही दासी-पुत्री थी।
राजा भारमल ने यह विवाह एक समझौते की तरह या राजपूती भाषा में कहें तो हल्दी-चन्दन किया था।
इस विवाह के विषय मे अरब में बहुत सी किताबों में लिखा है (“ونحن في شك حول أكبر أو جعل الزواج راجبوت الأميرة في هندوستان آرياس كذبة لمجلس”) हम यकीन नहीं करते इस निकाह पर हमें संदेह है।
इसी तरह ईरान के मल्लिक नेशनल संग्रहालय एन्ड लाइब्रेरी में रखी किताबों में एक भारतीय मुगल शासक का विवाह एक परसियन दासी की पुत्री से करवाए जाने की बात लिखी है।
'अकबर-ए-महुरियत' में यह साफ-साफ लिखा है कि (ہم راجپوت شہزادی یا اکبر کے بارے میں شک میں ہیں) हमें इस हिन्दू निकाह पर संदेह है क्योंकि निकाह के वक्त राजभवन में किसी की आखों में आँसू नही थे और ना ही हिन्दू गोद भरई की रस्म हुई थी।
सिक्ख धर्म गुरू अर्जुन और गुरू गोविन्द सिंह ने इस विवाह के विषय मे कहा था कि (ਰਾਜਪੁਤਾਨਾ ਆਬ ਤਲਵਾਰੋ ਓਰ ਦਿਮਾਗ ਦੋਨੋ ਸੇ ਕਾਮ ਲੇਨੇ ਲਾਗਹ ਗਯਾ ਹੈ) कि क्षत्रियों ने अब तलवारों और बुद्धि दोनो का इस्तेमाल करना सीख लिया है, मतलब राजपुताना अब तलवारों के साथ-साथ बुद्धि का भी काम लेने लगा है।
17वी सदी में जब 'परसी' भारत भ्रमण के लिये आये तब उन्होंने अपनी रचना ”परसी तित्ता” में लिखा “यह भारतीय राजा एक परसियन वैश्या को सही हरम में भेज रहा है, अत: हमारे देव(अहुरा मझदा) इस राजा को स्वर्ग दें"।
भारतीय राजाओं के दरबारों में राव और भाटों का विशेष स्थान होता था वे राजा के इतिहास को लिखते थे और विरदावली गाते थे। उन्होंने साफ साफ लिखा है- ”गढ़ आमेर आयी तुरकान फौज ,ले ग्याली पसवान कुमारी ,राण राज्या राजपूता ले ली इतिहासा पहली बार ले बिन लड़िया जीत। (1563 AD)" मतलब आमेर किले में मुगल फौज आती है और एक दासी की पुत्री को ब्याह कर ले जाती है, हे रण के लिये पैदा हुए राजपूतों तुमने इतिहास में ले ली बिना लड़े पहली जीत 1563 AD।
ये ऐसे कुछ तथ्य हैं जिनसे एक बात समझ आती है कि किसी ने जानबूझकर गौरवशाली क्षत्रिय समाज को नीचा दिखाने के उद्देश्य से ऐतिहासिक तथ्यों से छेड़छाड़ की और यह कुप्रयास अभी भी जारी है.....

ताजमहल नहीं तेजोमहालय बोलिये श्रीमान.....

तेरह बीवी भोग के, पाई थी मुमताज !
बच्चे चौदह जन दिये, पूर्ण हुआ ना काज !!

शहंशाह का हरम भी, रहा सदा गुलजार !
मरने पर मुमताज के, साली का उद्धार !!

ऐसी कामी वासना, को कहते हो प्यार  !
लज्जा में  डूबो मियाँ, तुमको है धिक्कार !!

नाम रहा तेजोमहल, शिव शंकर का धाम !
कब्र बनाकर दे दिया, ताज महल का नाम !!

इस से बढ़कर विश्व में, दूजा ना  परिहास !
महिमा मंडित क्रूरता, लिख झूठा इतिहास !!

अब तो लगनी चाहिये, इसपर कड़ी नकेल !
इस क्रूर इतिहास का, बंद करो अब खेल !!
इसी सम्बन्ध में पढिये डॉक्टर सुब्रमनियम स्वामी के शब्दों में किसकी जमीन पर बना है ताजमहल।
*जयपुर के राजाओं से हडपी जमीन पर बनाया गया है ताजमहल : सुब्रमणयम स्वामी*

भाजपा सांसद सुब्रमणयम स्वामी ने कहा है कि, उनके पास ऐसे दस्तावेज हैं, जो ये बताते हैं कि, जिस संपत्ति पर ताजमहल बना है वो मुगल सम्राट शाहजहां ने जयपुर के राजाओं से हड़पी थी ।

स्वामी ने बताया कि, इस बात के सबूत ऑन रिकॉर्ड मौजूद हैं कि, शाहजहां ने जयपुर के राजा-महाराजाओं को उस जमीन को बेचने पर मजबूर किया था, जिस पर ताजमहल खड़ा है । और मुआवजे के तौर पर उन्हें गांव दिए गए, जो कि, उस संपत्ति की किमत के आगे कुछ भी नहीं है, जिस पर ताजमहल बना है ।

स्वामी द्वारा किए गए इस खुलासे की जांच होनी चाहिए। साथ ही कर्इ इतिहासकारों ने भी कहा है कि, ताजमहल पहले तेजोमहालय था। इसपर भी संशोधन होना आवश्यक है ।

*विस्तृत पढे* - https://www.hindujagruti.org/hindi/news/113930.html

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कांग्रेस की अवसरवादी राजनीति।

            सत्ता से बाहर आते ही कांग्रेस को  अपनी भूलो की याद आने लगी है।65 साल की सत्ता में आखिर उसने  किया क्या  है? 15 प्रतिशत मुस्लिमो के वोट पाने के लिये तुस्टीकरण और अवसरवाद की राजनीति की। 85 प्रतिशत ध्ईन्दुओ को जात पात में तोड़ तोड़ आपस में लड़ाया, जात पात को बढ़ाया। हमारे स्वर्णिम इतिहास को बामपंथी भाड़ लोगो द्वारा झूठी इतिहास की पुस्तक लिखवाकर बदलने की कोशिश की। लेकिन यह कब तक होता?
 लगता ही नहीं की यह देश हिन्दुओ का है। जनता अब जाग चुकी है। अब इस देश में वही होगा, जो 85 प्रतिशत चाहेगा।
        दुनिया का कौन सा देश अपनी संस्कृति, पूर्वजो को दरकिनार कर आक्रमणकारियों, लुटेरो की संस्कृति को अपनाने। को तैयार है? कौन सा देश लुटेरो की गौरव गाथा गाना चाहता है? ,
फिर  भारत ही क्यूँ इसे ढोये?
देश की जनता को जब मोदी,रामराज्य, गौ रक्षा, देशभक्ति और समान नागरिक संहिता ही पसन्द है,तो फिर इतनी हाय तौबा क्यों?
जयचंदो और मीरजाफर के संततियों को जितनी जल्द समझ आ जाये, उतना ही अच्छा होगा की अब देश की जनता उनको तनिक भी बर्दाश्त करने को तैयार नहीं। अब कोई भारत को तोड़कर पाकिस्तान लेने या भारत को पाकिस्तान बनाने की मंशा न पाले।
सुन रहे हो न, मेरे धर्म संस्कृति और भारत के दुश्मनों।

अपने धर्म संस्कृति का अभिमान कीजिये।

राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त के शब्दों में-
जो भरा नहीं है भावो से, बहती जिसमे रसधार नहीं।
हृदय नहीं वह  पत्थर है, जिसमे स्वदेश का प्यार नहीं।।
         ऐसे लोगों के बारे में क्या कहा जाय, जिन्हें अपनी नीज धर्म,जाति, देश, संस्कृति पर अभिमान नहीं, और अपने कर्म,विचार से अपने ही धर्म,संस्कृति,सभ्यता और राष्ट्र का जड़ खोद रहे।
जाति कथा बखान करना न मेरा उद्देश्य है, न ही इस ग्रुप का। मेरा उद्देश्य है अपने धर्म, संस्कृति के बारे में लोगों को बताना।
विरोध का भी एक तरीका होता है।
कुछ कायर,हीन् भावना से ग्रसित लोग इसी मंच से हिन्दू धर्म के बारे में अपने दिमाग की गन्दगी निकालते है, तब तो इस महाशय ने कुछ भी नहीं कहा।
मैं बता दूँ की मैं बंशज हूँ पृथ्वीराज,राणाप्रताप, वीर शिवाजी और सावरकर का और शिष्य पूज्य महामना मालवीय का।मैं पहले हिंदुस्तानी और हिन्दू हूँ, फिर कुछ और। हमे गर्व है विश्व के सर्वश्रेष्ठ धर्म संस्कति के वाहक होने का।
मै हिन्दू के रूप में किसी विधर्मी से बैर भाव नहीं रखता, बल्कि हर विधर्मी राष्ट्रप्रेमी उसी रूप में प्रिय है जैसे मुझे एक एक हिन्दू प्रिय है।
अपनी धर्म संस्कृति और राष्ट्र के लिए सिर्फ एक जन्म नहीं, बल्कि हर जन्म की आहुति स्वीकार है।

जय हिंद,जय भारत,जय हिन्दू धर्म संस्कृति।

चाँद की शिकायत।

           चाँद को भगवान् राम से यह शिकायत है की दीपवली का त्यौहार अमावस की रात में मनाया जाता है और क्योंकि अमावस की रात में चाँद निकलता ही नहीं है इसलिए वह कभी भी दीपावली मना नहीं सकता। यह एक मधुर कविता है कि चाँद किस प्रकार खुद को राम के हर कार्य से जोड़ लेता है और फिर राम से शिकायत करता है और राम भी उस की बात से सहमत हो कर उसे वरदान दे बैठते हैं आइये देखते हैं ।
**************************************

जब चाँद का धीरज छूट गया ।
वह रघुनन्दन से रूठ गया ।
बोला रात को आलोकित हम ही ने करा है ।
स्वयं शिव ने हमें अपने सिर पे धरा है ।

तुमने भी तो उपयोग किया हमारा है ।
हमारी ही चांदनी में सिया को निहारा है ।
सीता के रूप को हम ही ने सँभारा है ।
चाँद के तुल्य उनका मुखड़ा निखारा है ।

जिस वक़्त याद में सीता की ,
तुम चुपके - चुपके रोते थे ।
उस वक़्त तुम्हारे संग में बस ,
हम ही जागते होते थे ।

संजीवनी लाऊंगा ,
लखन को बचाऊंगा ,.
हनुमान ने तुम्हे कर तो दिया आश्वश्त
मगर अपनी चांदनी बिखरा कर,
मार्ग मैंने ही किया था प्रशस्त ।
तुमने हनुमान को गले से लगाया ।
मगर हमारा कहीं नाम भी न आया ।

रावण की मृत्यु से मैं भी प्रसन्न था ।
तुम्हारी विजय से प्रफुल्लित मन था ।
मैंने भी आकाश से था पृथ्वी पर झाँका ।
गगन के सितारों को करीने से टांका ।

सभी ने तुम्हारा विजयोत्सव मनाया।
सारे नगर को दुल्हन सा सजाया ।
इस अवसर पर तुमने सभी को बुलाया ।
बताओ मुझे फिर क्यों तुमने भुलाया ।
क्यों तुमने अपना विजयोत्सव
अमावस्या की रात को मनाया ?

अगर तुम अपना उत्सव किसी और दिन मानते ।
आधे अधूरे ही सही हम भी शामिल हो जाते ।
मुझे सताते हैं , चिड़ाते हैं लोग ।
आज भी दिवाली अमावस में ही मनाते हैं लोग ।

तो राम ने कहा, क्यों व्यर्थ में घबराता है ?
जो कुछ खोता है वही तो पाता है ।
जा तुझे अब लोग न सतायेंगे ।
आज से सब तेरा मान ही बढाएंगे ।
जो मुझे राम कहते थे वही ,
आज से रामचंद्र कह कर बुलायेंगे ।

गांधी- नेहरू का षड्यंत्र।

मंगल पांडे को फाँसी❓
तात्या टोपे को फाँसी❓
रानी लक्ष्मीबाई को अंग्रेज सेना ने घेर कर मारा❓
भगत सिंह को फाँसी❓
सुखदेव को फाँसी❓
राजगुरु को फाँसी❓
चंद्रशेखर आजाद का एनकाउंटर अंग्रेज पुलिस द्वारा❓
सुभाषचन्द्र बोस को गायब करा दिया गया❓
भगवती चरण वोहरा बम विस्फोट में मृत्यु❓
रामप्रसाद बिस्मिल को फाँसी❓
अशफाकउल्लाह खान को फाँसी❓
रोशन सिंह को फाँसी❓
लाला लाजपत राय की लाठीचार्ज में मृत्यु❓
वीर सावरकर को कालापानी की सजा❓
चाफेकर बंधू (३ भाई) को फाँसी❓
मास्टर सूर्यसेन को फाँसी❓
ये तो कुछ ही नाम है जिन्होंने स्वतन्त्रता संग्राम और इस देश की आजादी में अपना सर्वोच्च बलिदान दिया❓
कई वीर ऐसे है हम और आप जिनका नाम तक नहीं जानते ❓

एक बात समझ में आज तक नही आई कि भगवान ने गांधी और नेहरु को ऐसे कौन से कवच-कुण्डंल दिये थे❓
जिसकी वजह से अग्रेंजो ने इन दोनो को फाँसी तो दूर, कभी एक लाठी तक नही मारी...❓
उपर से यह दोनों भारत के बापू और चाचा बन गए और इनकी पीढ़ियाँ आज भी पूरे देश के उपर अपना पेंटेंट समझती है❓

       *गहराई से सोचिए❓❓*                                         
जय हिंद।

चरखे से आजादी पाना। सच या झूठ?

जलती रही जोहर में नारियां
 भेड़िये फ़िर भी मौन थे।
 हमें पढाया गया अकबर महान,
तो फिर महाराणा प्रताप कौन थे।


सड़ती रही लाशें सड़को पर
 गांधी फिर भी मौन थे,
हमें पढ़ाया गांधी के चरखे से आजादी आयी,
तो फांसी चढ़ने वाले 25-25 साल के वो जवान कौन थे


वो रस्सी आज भी  संग्रहालय में है
जिस्से गांधीजी बकरी बांधा करते थे
किन्तु वो रस्सी कहां है
जिस पे भगत सिंह , सुखदेव और राजगुरु हसते हुए झूले थे


" हालात.ए.मुल्क देख के रोया न गया...

कोशिश तो की पर मूंह ढक के सोया न गया".

जाने कितने झूले थे फाँसी पर,कितनो ने गोली खाई थी....

क्यो झूठ बोलते हो साहब, कि चरखे से आजादी आई थी....

जाति नहीं वर्ण व्यवस्था में यकीन रखिये।

हमारी आर्य ऋषि परम्परा जाति पाती में विश्वास नहीं करती वरन वर्ण व्यवस्था में विश्वास करती है, जहां जन्म के अनुसार नहीं बल्कि कर्म के अनुसार व्यक्ति का वर्ण निर्धारित होता है। यानि  ब्राह्मण का कर्म कर रहे व्यक्ति का पुत्र यदि सेवा कार्य कर रहा है तो वह शुद्र होता है तथा इसी प्रकार एक शुद्र का कर्म कर रहे व्यक्ति का पुत्र पुत्री क्षत्रिय, वैश्य , ब्राह्मण हो सकता है। गौरतलब है कि कोई भी वर्ण ऊँचा नीचा नहीं है।
यह व्यवस्था पूर्व वैदिक काल से प्रारंभ होकर उत्तरवैदिक काल में दृढ़ होती गयी और जिस वर्ण का कर्म करने वाले व्यक्ति के घर पुत्र पुत्री का जन्म होने लगा, संतान अपने माता पिता का वर्ण धारण करने लगा, जो धीरे धीरे जाति में बदल गयी।
यह व्यवस्था 7वीं सदी तक आते आते और भी निश्चित होती गयी। अब तक राजतन्त्र प्रशासन की व्यवस्था बन चुकी थी।प्रशासन में सहयोग  हेतु लिखने पढ़ने वाले व्यक्तियों की आवश्यकता महसूस की जाने लगी थी। अतःइन चारों वर्णो में जो भी व्यक्ति लिखने पढ़ने का कार्य करने लगे, उसे एक नई जाति लेखक कहा जाने लगा। जो बाद में भगवान चित्रगुप्त के संतान माने जाने लगे। चित्रगुप्त की काया से उतपन्न माने जाने के कारण लेखको को कायस्थ भी कहा जाने लगा।
समाज में ऊंच नीच का जहर घोलती जाति व्यवस्था हिन्दू समाज का अब तक अहित ही करती आई है। ब्राह्मण वर्ण को श्रेष्ठ और क्रमशः शुद्र वर्ण को निकृष्ठ घोषित करना समाज के प्रभुत्वसंपन्न लोगों की चाल और शोषण का हथियार था, जिसने शुद्रो को हिन्दू धर्म त्याग कर बौद्ध , मुस्लिम या ईसाई धर्म अपना कर समानता पाने की मृग मरीचिका दिखाती आयी है। अनेको लोग आज भी इस जाति व्यवस्था में शोषित हैं।
अगर हम वर्ण व्यवस्था में पुनः विश्वास रख सके, जैसा की स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने आर्य समाज की स्थापना कर हमें पुनः वेदों की ओर लौटने का संदेश दिया, तो हिन्दू समाज पुनः एकजुट हो सकता है। इसलिए हमे हिन्दू समाज के प्रत्येक व्यक्ति से विना उसके जाति पूछे मन, वचन और कर्म से समान व्यवहार  करने  और सम्भव मदद को तैयार रहने की जरूरत है। मैंने अपने जीवन व्यवहार में यही तरीका अपनाया है।
एक निवेदन और, यदि हमें वर्ण व्यवस्था में वास्तव में यकीन है तो हम सभी लिखने पढ़ने वाले यानि कलम को अपनी जीविका के रूप में अपनाने वाले लोगों के इष्ट देव भगवान चित्रगुप्त हुए। अतः आग्रह होगा की आने वाले चित्रगुप्त पूजन के दिन हम भगवान चित्रगुप्त की पूजा करे।यह जाति व्यवस्था को नकार कर वर्ण व्यवस्था को अपनाने में भी सहायक होगा।
धन्यवाद।
कमल किशोर प्रसाद,chatra, झारखण्ड
tikhimirchiofadvocatekamal.blogspot.com

जिहादियों से घिरा समाज।

भारतीयों, जागो ! समझो कि महानता शून्य में नहीं पनपती [ जिहादियों से घिरा समाज ]


महानता क्या है? क्या कोई गुण विशेष महानता है?
नहीं। महानता शून्य में नहीं पनपती।

अविद्या से घिरे समाज में विद्या महानता है।
वासना से डूबे समाज में संकल्प का बल महानता है।

सर काटने वाले जंगली जिहादियों के बीच वीरता महानता है।
जिहादियों से घिरे समाज में बैठ कर विद्या का अभिमान नहीं किया जा सकता।

पाकिस्तान बगल में हो तो सॉफ्टवेयर निर्यात करने को महानता नहीं समझा जा सकता।
– नयी युद्ध नीति,
– विध्वंसक हथियार,
– आक्रामक लड़ाके और
– प्रतिशोध का संकल्प,
यही हिन्दुस्तान को आने वाले समय में जिंदा रखेगा।
ज़िंदा रहेंगे तो सॉफ्टवेयर भी निर्यात करेंगे।

गांधीजी की चाल।

*किताबों को खंगालने से हमें यह पता चला*
कि ‘बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय‘ (BHU) के संस्थापक *पंडित मदनमोहन मालवीय जी* नें 14 फ़रवरी 1931 को Lord Irwin के सामने *भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव* की फांसी रोकने के लिए Mercy Petition दायर की थी ताकि उन्हें फांसी न दी जाये और कुछ सजा भी कम की जाएl Lord Irwin ने तब मालवीय जी से कहा कि आप कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष है इसलिए आपको इस Petition के साथ नेहरु, गाँधी और कांग्रेस के कम से कम 20 अन्य सदस्यों के पत्र भी लाने होंगेl

जब मालवीय जी ने भगत सिंह की फांसी रुकवाने के बारे में नेहरु और गाँधी से बात की तो उन्होंने इस बात पर चुप्पी साध ली और अपनी सहमति नहीं दीl इसके अतिरिक्त गाँधी और नेहरु की असहमति के कारण ही कांग्रेस के अन्य नेताओं ने भी अपनी सहमति नहीं दीl

*Retire होने के बाद Lord Irwin ने स्वयं London में कहा था कि "यदि नेहरु और गाँधी एक बार भी भगत सिंह की फांसी रुकवाने की अपील करते तो हम निश्चित ही उनकी फांसी रद्द कर देते, लेकिन पता नहीं क्यों मुझे ऐसा महसूस हुआ कि गाँधी और नेहरु को इस बात की हमसे भी ज्यादा जल्दी थी कि भगत सिंह को फांसी दी जाए”*

Prof. Kapil Kumar की किताब के अनुसार ”गाँधी और Lord Irwin के बीच जब समझौता हुआ उस समय इरविन इतना आश्चर्य में था कि गाँधी और नेहरु में से किसी ने भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को छोड़ने के बारे में चर्चा तक नहीं कीl”

 *Lord Irwin ने अपने दोस्तों से कहा कि ‘हम यह मानकर चल रहे थे कि गाँधी और नेहरु भगत सिंह की रिहाई के लिए अड़ जायेंगे और हम उनकी यह बात मान लेंगेl*

भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी लगाने की इतनी जल्दी तो अंग्रेजों को भी नही थी जितनी कि गाँधी और नेहरु को थी क्योंकि *भगत सिंह तेजी से भारत के लोगों के बीच लोकप्रिय हो रहे थे जो कि गाँधी और नेहरु को बिलकुल रास नहीं आ रहा था*l यही कारण था कि वो चाहते थे कि जल्द से जल्द भगत सिंह को फांसी दे दी जाये, यह बात स्वयं इरविन ने कही हैl

इसके अतिरिक्त लाहौर जेल के जेलर ने स्वयं गाँधी को पत्र लिखकर पूछा था कि ‘इन लड़कों को फांसी देने से देश का माहौल तो नहीं बिगड़ेगा?‘ *तब गाँधी ने उस पत्र का लिखित जवाब दिया था कि ‘आप अपना काम करें कुछ नहीं होगाl’*

*इस सब के बाद भी यादि कोई कांग्रेस को देशभक्त कहे तो निश्चित ही हमें उसपर गुस्सा भी आएगा और उसकी बुद्धिमत्ता पर रहम भी|

Tuesday 19 December 2017

नौकरी और जीवन का कशमकश।


ये नौकरी भी क्या चीज़ है यारो......
जिनके लिए नौकरी करता हूँ,
 वे घर पर इंतेजार कर रहे।
जिनकी परवरिश के लिए न समय से लंच  ,
न समय से घर लौटता।
जिनकी फ़िक्र में अपनी जवानी खो रहा, बुढ़ापा बीमारी की ओर बढ़ रहा,
वे न आज मेरी खैरियत लेते हैं,
न कल को पूछेंगे।
जो पूछेंगे, उनकी ही फ़िक्र नहीं कर   रहा।
बच्चो की शिकायतें,
पत्नी का इंतज़ार
और  माता पिता की आस,
न पूरी आज तक किया, न कर पा रहा।
बस इंतज़ार..इंतज़ार और इंतज़ार।
एक सुकून भरी जिंदगी की आस में
 आज सब कुछ पाया ,
बस सुकून ही नहीं।
कमल किशोर प्रसाद
चतरा, झारखण्ड।
tikhimirchiofadvocatekamal.blogspot.com

जीविकोपार्जन और सुखोपार्जन के साधन।

               एक व्यक्ति के जीविकोपार्जन और सुखोपार्जन के साधन अलग अलग हो सकते हैं। यह जरूरी नहीं कि जीविकोपार्जन का साधन उसके सुखोपार्जन का भी साधन हो।यह सही है कि व्यक्ति के पद और अर्थोपार्जन के साधन के द्वारा उस व्यक्ति की पहचान होती है और इसी के अनुरूप मान सम्मान भी मिलता है।यह सही है कि पद से प्रतिष्ठा जुडी होती है, लेकिन किसी के दिल में जगह और सम्मान अपने कर्म और व्यक्तित्व से कमाई जाती है।
       अतः जीविकोपार्जन का साधन उस व्यक्ति की पहचान का एकमात्र तरीका नहीं है।लेखिकीय कर्म करनेवाला देश का एक सजग सचेत नागरिक होता है, पर उसे वह मान सम्मान नहीं मिलता, जिसका वह हकदार है।
               पुरस्कारों की जब बात होती है, लेखकीय कर्म करने वाले सबसे बड़ा समूह कहीँ नहीं होता। मन के कोने में एक टीस सदैव सालते रहती है की काम चाहे कितना भी अच्छा कयूं न कर लो, पुरस्कार के नाम पर सिर्फ डांट, फटकार, भर्त्सना,निलंबन और पदच्युति ही भाग्य में है। इससे व्यक्ति अपनी पूरी क्षमता से कार्य नहीं कर पाता।
             ये कुछ ऐसी विसंगतियां है, जिनसे भारत को मुक्त होना होगा। सराहनीय काम का असली सम्मान उसे मिले, जो उसका हकदार है। न की उसे जो बैठे बिठाये दूसरे के श्रम का पुरस्कार झटक ले।
              हमारे लिए बेहतर यह होगा की हम अपने  जीविकोपार्जन और सुखोपार्जन का कार्य अलग अलग चुने। सिर्फ जीविकोपार्जन के कार्य में अपनी सारी शक्तियां न झोंक दें, बल्कि अपनी ऊर्जा को बचा कर उस कार्य में अपना सर्वस्व लगाये, जिसमे हमे आनन्द आता हो । जिस कार्य में हमारी तन मन और आत्मा को संतुष्टि मिले, वही कार्य हमारे लिए श्रेयस्कर है।