Monday 27 August 2018

पढिये और गुनिए
           भारतवर्ष के विराट पावन धरती पर भारतीय संस्कृति के उद्दात विचारधारा अतिथि देवो भवः को माननेवाले हम आर्यपुत्रो के दिलो का आत्मस्वार्थ मे इतना संकुचित हो जाना कि दूसरे तो दूसरे अपने बन्धु बांधवो के लिए भी कोई स्थान न रहे,ये हमारी भारतीय संस्कृति के पाश्चात्य संस्कृति में घोर दूषित होने का परिचायक है,जो आजकल आपसी रिश्तों के निर्वाह में सर्वत्र  देखा जा रहा। विचारणीय विंदु यह है कि क्या हम उन्ही पूर्वजो के सन्तति हैं,जिन्होंने अपने द्वार पर आनेवाले मनुष्य  तो मनुष्य गाय, कुत्ते,तोता मैना को भी अपने घरों और दिलो में स्थान दिया ? अतिथि को द्वार पर आने मात्र के भनक से अपना भोजन छोड़कर अतिथि को खिला देने वाले,घर की पहली रोटी गाय और अंतिम रोटी कुत्ते को खिलाने वाले हमारे उन पूर्वजो की आत्माये आज हमारे कृत्यों पर कितना गर्व करती होंगी? आधुनिक शिक्षा में शिक्षित लक्ष्मीपुत्रो के शानदार हवेलियों के द्वार पर "कुत्तो से सावधान" और ग्वार,पिछड़े, निर्धनों के द्वार पर " सुस्वागतम" लिखा क्यों होता है? माना कि हम 21वीं सदी के अतिआधुनिक मानव जन हैं, फिर हमारे आचरण इतनी शर्मिंदगी  भरी और स्वार्थपूर्ण कयूं है,जहां घर के बड़े बुढो का भी घर मे स्थान नहीं रहा? रिश्ते नातेदारों की बात क्या करें? उपेक्षित,असहाय,नित्य प्रतिपल घुटते उनकी  आत्माओ की आवाजें क्यों हमारी कान के पर्दे नहीं फाड् रही? कभी तो हम पूछे कि वे सोचते क्या हैं? चाहते क्या हैं?
वस्तुतः हम जिस विषबेल को पल्लवित, पुष्पित कर रहे,उसके विषफल से कल हम भी बचने वाले नहीं? आज के हम युवा,कल के बड़े बूढ़े होंगे,फिर आज हम जो उदाहरण अपने बच्चों के सामने पेश कर रहे,उसके  भुक्तभोगी होने से हम भी बचनेवाले नहीं।
ये कुछ विचारबिन्दु हैं, हमारे लिए। इनपर मनन चिंतन हमारे कल का निर्धारण करेंगे।
- कमल किशोर प्रसाद
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Saturday 2 June 2018

            देश की न्याय व्यवस्था में वर्षो से चल रहे खेल का पर्दाफाश जितना होना चाहिए था,उतना हुआ नहीं और बार कौंसिल ऑफ इंडिया उसे लीपा पोती में लग गया है।
हमारी संविधानिक व्यवस्था और ऊपर से कोलोजियम सिस्टम मनमाने वकीलों को न्यायधीश बनाने और उसके बाद राजनीतिक वकीलों और माननीयो की आपसी साजिश के तहत देश के अहम मुद्दों पर मनमाना निर्णय पाने और वकीलों के जायज नाजायज अकूत धन कमाने की इस होड़ ने 60 सालो में देश का क्या हाल बना दिया है?
देश मे कांग्रेसियो, बामपंथियों ने जो खेल खेला है,उसका सच आना ही था,और उसकी सजा वनवास के रूप में जनता दे भी रही है। मौजूदा घटना तो उसका एक उदाहरण ही है।
यह कहाँ की न्यायसंगत व्यवस्था है कि राजनीतिक प्रभाव और पैरवी में हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस करनेवाले अधिवक्ता उसी कोर्ट में जज बन जाये और अपने द्वारा दाखिल मामलो में फैसला दे। अपने जूनियरों और साथियो के पक्ष में क्या फैसला पक्षपाती नहीं होगा?
इसी घालमेल के कारण सुप्रीम कोर्ट के वकीलों ने इतनी ज्यादा अपनी फीस बढ़ा रखी है, की आम आदमी यहां पैर रखने की हिम्मत नहीं करता।
निचली अदालत में भी तमाम अच्छे अधिवक्ता हैं, पर वे इस तरह जज बनने की क्या सोच,उम्र बीत जाती है एक अदद वरिष्ठ अधिवक्ता तक नहीं बन सकते।
निचली अदालत में काम करने वाला लिपिक चाहे भले ही क्यों न लॉ की डिग्री रखता हो, कानून का अत्यधिक व्यवहारिक ज्ञान हो,अनुभव हो लेकिन एक सेकंड क्लास मजिस्ट्रेट नहीं बन सकता।  न ऐसा कोई डिपार्टमेंटल सिस्टम है। क्या इसमे कोई बदलाव नहीं आनी चाहिए?
बात निकली है तो दूर तलक जानी चाहिए।
यह सिस्टम अब बदलनी ही चाहिए।
          आपकी बहुमूल्य प्रतिक्रिया का हमे इंतेजार रहेगा।
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धन्यवाद।

Sunday 21 January 2018

न्याय व्यवस्था की विडंबना

देश की न्याय व्यवस्था में वर्षो से चल रहे खेल का पर्दाफाश जितना होना चाहिए था,उतना हुआ नहीं और बार कौंसिल ऑफ इंडिया उसे लीपा पोती में लग गया है।
हमारी संविधानिक व्यवस्था और ऊपर से कोलोजियम सिस्टम मनमाने वकीलों को न्यायधीश बनाने और उसके बाद राजनीतिक वकीलों और माननीयो की आपसी साजिश के तहत देश के अहम मुद्दों पर मनमाना निर्णय पाने और वकीलों के जायज नाजायज अकूत धन कमाने की इस होड़ ने 60 सालो में देश का क्या हाल बना दिया है?
देश मे कांग्रेसियो, बामपंथियों ने जो खेल खेला है,उसका सच आना ही था,और उसकी सजा वनवास के रूप में जनता दे भी रही है। मौजूदा घटना तो उसका एक उदाहरण ही है।
यह कहाँ की न्यायसंगत व्यवस्था है कि राजनीतिक प्रभाव और पैरवी में हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस करनेवाले अधिवक्ता उसी कोर्ट में जज बन जाये और अपने द्वारा दाखिल मामलो में फैसला दे। अपने जूनियरों और साथियो के पक्ष में क्या फैसला पक्षपाती नहीं होगा?
इसी। घालमेल के कारण सुप्रीम कोर्ट के वकीलों ने इतनी ज्यादा अपनी फीस बढ़ा रखी है, की आम आदमी यहां पैर रखने की हिम्मत नहीं करता।
निचली अदालत में भी तमाम अच्छे अधिवक्ता हैं, पर वे इस तरह जज बनने की क्या सोच,उम्र बीत जाती है एक अदद वरिष्ठ अधिवक्ता तक नहीं बन सकते।
निचली अदालत में काम करने वाला लिपिक चाहे भले ही क्यों न लॉ की डिग्री रखता हो, कानून का अत्यधिक व्यवहारिक ज्ञान हो,अनुभव हो लेकिन एक सेकंड क्लास मजिस्ट्रेट नहीं बन सकता।  न ऐसा कोई डिपार्टमेंटल सिस्टम है। क्या इसमे कोई बदलाव नहीं आनी चाहिए?
बात निकली है तो दूर तलक जानी चाहिए।
इसे इतना फारवर्ड करो कि सरकार की कान तक आवाज जाए।
यह सिस्टम अब बदलनी ही चाहिए।

आधी आबादी का संघर्ष

 पंकज प्रसून की कविता संग्रह से साभार-

मैंने देखा
एक लड़की महिला सीट पर बैठे पुरुष को
उठाने  के लिए लड़ रही थी
तो दूसरी लड़की
महिला - कतार में खड़े पुरुष को
हटाने  के लिए लड़ रही थी

मैंने दिमाग दौड़ाया
तो हर ओर लड़की को लड़ते हुए पाया

जब लड़की घर से निकलती है
तो उसे लड़ना पड़ता है
गलियों से राहों से
सैकड़ों घूरती निगाहों से

लड़ना होता है तमाम अश्लील फब्तियों से
एकतरफा मोहब्बत से
ऑटो में सट कर बैठे किसी बुजुर्ग की फितरत से

उसे लड़ना होता है
विडंबना वाले सच से
टीचर के बैड टच से

वह अपने आप से भी लड़ती है
जॉब की अनुमति न देने वाले बाप से भी लड़ती है

उसे हमेशा यह दर्द सताता है
चार बड़े भाइयों के बजाय पहले मेरा डोला क्यों उठ जाता है

वह स्वाभिमान के बीज बोने के लिए लड़ती है
खुद के पैरों पर खड़े होने के लिए लड़ती है

वह शराबी पति से रोते हुए पिटती है
फिर भी उसे पैरों पर खड़ा करने के लिए लड़ती है

वह नहीं लड़ती महज  शोर मचाने के लिए
वह लड़ती है चार पैसे बचाने के लिए
वह अपने अधिकार के लिए लड़ती है
सुखी परिवार के लिए लड़ती है

वह साँपों से चील बनके लड़ती है
अदालत में वकील बन के लड़ती है

वह दिल में दया ममता प्यार लेकर लड़ती है
तो कभी हाथ में तलवार लेकर लड़ती है

वह लेखिका बनके  पेन से लड़ती है
जरूरत पड़े तो फाइटर प्लेन से लड़ती है

प्यार में राधा  दीवानी की तरह लड़ती है
तो जंग में झांसी की रानी की तरह लड़ती है

कभी कील बनके लड़ती है कभी किला बनके लड़ती है
कभी शर्मीली तो कभी ईरोम शर्मिला बनके लड़ती है

कभी शाहबानो बन पूरे समाज से लड़ती है
तो कभी सत्यवती बन यमराज से लड़ती है

कभी रजिया कभी अपाला बनके लड़ती है
कभी  हजरत महल कभी मलाला बनके लड़ती है

कभी वाम तो कभी आवाम बनके लड़ती है
और जरूरत पड़े तो मैरीकॉम बनके लड़ती है

कभी दुर्गावती कभी दामिनी बनकर लड़ती है
अस्मिता  पर आंच आये तो
पन्नाधाय और पद्मिनी बनके लड़ती है

कभी नफरत में कभी अभाव में लड़ती है
तो कभी इंदिरा बन चुनाव में लड़ती है

*उसने लड़ने की यह शक्ति यूं ही नहीं पाई है*
*वह नौ महीने पेट के अंदर लड़के आई है*........

*सच में लड़कियां बड़ी लड़ाका होती हैं*