यह स्वागत योग्य है कि विधि आयोग की अनुशंसा पर इस दिशा में संसद ने दण्ड प्र क्रिया संहिता में आवश्यक संशोधन करते हुये धारा 357 ए जोड़ा और एक सजा की एक नयी अवधारणा पीड़ित प्रतिकार योजना के रूप में आया, जहाँ दोषी को न सिर्फ कारावास की सजा भुगतना होता है बल्कि पीड़ित को आर्थिक दंड के एक रूप में आर्थिक छतिपूर्ति भी करनी होती है।
अगर सजा से दोनों परिवार के अलावे समाज का भी भला हो तो इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है। सश्रम कारावास के रूप में किये गए कार्य से अर्जित पारिश्रमिक का एक भाग कैदी का, एक भाग उसके परिवार का एवं एक भाग पीड़ित का हिस्सा होना चाहिए ताकि दोषी को यह पता चलना चाहिए की उसकी जिम्मेदारी न सिर्फ अपने और अपने परिवार के प्रति है बल्कि पीड़ित और उसके परिवार की जिम्मेदारी भी उसी की है।
सजा ऐसी होनी चाहिए जिससे दूसरों को भी एक सन्देश मिले। जैसे अगर कोई व्यक्ति वन अधिनियम की धारा 33 के अंतर्गत जंगल की कटाई के लिए दोषी पाया जाता है तो न्यायालय द्वारा कारावास या आर्थिक दण्ड से न तो फिर से वन लगने वाला है और न ही उससे समाज का भला होने वाला। अगर इसके जगह पर उसे फिर से 100 पौधे लगाने और पांच साल तक देखरेख करने की सजा दी जाये, तो इससे न सिर्फ वन बढ़ेगा, बल्कि इससे उसकी जीवन भी सुधरेगी और समाज का भी भला होगा। यह सजा देने की और कष्ट प्रदान करने की नकारात्मक अवधारणा की जगह सबकी भलाई बाली सकारात्मक अवधारणा होगी।
हममे से कई लोग जाने अनजाने, ध रना-प्रदर्शन, विरोध में समाज और राष्ट्र की संपत्ति को नुकसानी पहुचाते रहते है,ऐसे अपराधों में ऐसी ही सजा होनी चाहिए।