Sunday 21 January 2018

न्याय व्यवस्था की विडंबना

देश की न्याय व्यवस्था में वर्षो से चल रहे खेल का पर्दाफाश जितना होना चाहिए था,उतना हुआ नहीं और बार कौंसिल ऑफ इंडिया उसे लीपा पोती में लग गया है।
हमारी संविधानिक व्यवस्था और ऊपर से कोलोजियम सिस्टम मनमाने वकीलों को न्यायधीश बनाने और उसके बाद राजनीतिक वकीलों और माननीयो की आपसी साजिश के तहत देश के अहम मुद्दों पर मनमाना निर्णय पाने और वकीलों के जायज नाजायज अकूत धन कमाने की इस होड़ ने 60 सालो में देश का क्या हाल बना दिया है?
देश मे कांग्रेसियो, बामपंथियों ने जो खेल खेला है,उसका सच आना ही था,और उसकी सजा वनवास के रूप में जनता दे भी रही है। मौजूदा घटना तो उसका एक उदाहरण ही है।
यह कहाँ की न्यायसंगत व्यवस्था है कि राजनीतिक प्रभाव और पैरवी में हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस करनेवाले अधिवक्ता उसी कोर्ट में जज बन जाये और अपने द्वारा दाखिल मामलो में फैसला दे। अपने जूनियरों और साथियो के पक्ष में क्या फैसला पक्षपाती नहीं होगा?
इसी। घालमेल के कारण सुप्रीम कोर्ट के वकीलों ने इतनी ज्यादा अपनी फीस बढ़ा रखी है, की आम आदमी यहां पैर रखने की हिम्मत नहीं करता।
निचली अदालत में भी तमाम अच्छे अधिवक्ता हैं, पर वे इस तरह जज बनने की क्या सोच,उम्र बीत जाती है एक अदद वरिष्ठ अधिवक्ता तक नहीं बन सकते।
निचली अदालत में काम करने वाला लिपिक चाहे भले ही क्यों न लॉ की डिग्री रखता हो, कानून का अत्यधिक व्यवहारिक ज्ञान हो,अनुभव हो लेकिन एक सेकंड क्लास मजिस्ट्रेट नहीं बन सकता।  न ऐसा कोई डिपार्टमेंटल सिस्टम है। क्या इसमे कोई बदलाव नहीं आनी चाहिए?
बात निकली है तो दूर तलक जानी चाहिए।
इसे इतना फारवर्ड करो कि सरकार की कान तक आवाज जाए।
यह सिस्टम अब बदलनी ही चाहिए।

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