Tuesday 9 May 2017

धर्म के नाम पर कुतर्क और कुकर्म

       
 यह आश्चर्य और दुःख का विषय है कि सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामय.......की कामना करने वाला विश्व का सबसे पुराना सनातन धर्म, जिसमे  सर्वकल्याण समाहित है,से उलटी सोच रखनेबाला भी कोई धर्म हो सकता है क्या, जो अपनी कट्टरता से मानवता का दुश्मन बना दि या गया है। एक धर्म को अतिवादियों ने अपनी सोच, कार्य ,स्वार्थ और राजनितिक हित में कुछ ऐसा ही बना दिया है।
        यह अनायास ही नहीं कहा गया है-  जब तक धार्मिक ग्रन्थों में कट्टरता रहेगी, तब तक दुनिया में शान्ति नहीं रह पायेगी -   ग्लैडस्टोन (प्रसिद्द स्टेट्समैन एवं ब्रिटैन के भूतपूर्व प्रधानमंत्री)
           उल्लेखनीय है कि धर्म   उसे कहते है जो धारण किया जा सके यानि जिसके अनुरूप आचरण करने से अपना, परिवार, समाज, राष्ट्र और जगत का कल्याण हो सकने वाले कार्यों का समूह । परंतु यह दुखद है कि एक विशेष धर्म के कुछ अनुनायियों के आचरण में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिससे अपना और दूसरे का कल्याण हो सके।इस धर्म के अनुनायियों ने  किताब में उल्लेखित आयतों के मध्ययुगीन  अनुवाद,  कुतर्कों और अ पने कुकर्मों  से  अ न्य धर्मावलंबियों के लिए जीना मुशकिल कर रखा है। कोई भी धर्म हिंसा, परपीड़न,नारी हिंसा, धर्मान्तरण और दूसरे धर्म  एबम समाज के लोगों को तबाह कर देने की शिक्षा नहीं देता। परंतु यह कौन सा धार्मिक आचरण है जो दूसरे धर्म के लोगों को या तो इस धर्म में मतांतरण या समूल विनाश की बात करता है। ऐसा कर्म धार्मिक आचरण हो ही नहीं सकता तथा निश्चित ही ऐसे लोग शानतिपूर्ण सहअस्तित्व एवं मानवता का दुश्मन  ही हो सकते है।
        मेरी यह अवधारणा पक्षपाती लग सकती है। परंतु  यह तो सर्वमान्य तथ्य है कि किसी भी धर्म की मूल बातें उसके अनुयायियों की सोच, परधर्मवालाम्बियों के साथ के व्यवहार और उनके रहन सहन से ही परिलक्षित होती है। इस्लामी आतंक वादियो की रहन सहन, सोच विचार और आतंक के रास्ते पूरी दुनिया को हरा रंग में रंगने और खलीफा शासन के तहत लाने की कुत्षित मानसिकता से इस्लाम के बारे में क्या सोच बनती है ? यही न की जो धर्म आज तक अपनी सोच से मध्ययुगीन बर्बर सोच विचार, रहन सहन से मुक्त नहीं हो पाया और लकीर का फ़क़ीर बना हुआ है, वह आ ज के आधुनिक लोगों  को किस तरह दिशा दिखा सकता है, यह कल्पना से भी परे है। ऐसे में यह स्वाभाविक है कि इसके अनुयायी दूसरे को तबाह कर देने की ही मंशा पालें।
          यही वह समय है कि इस्लाम के झंडाबरदार अपनी सोच विचार, रहन सहन को आधुनिक बनावें, शांतिपूर्वक सह अस्तित्व की भावना मन में पैदा करें। आधुनिक शिक्षा के हमराही बनें। स्त्रियों के प्रति मन में श्रद्धा के भाव पैदा करें। आतंकवादियों को अपने धर्म से अलग करें । उनकी सोच को इस्लामी सोच से अलग करें। देश का दुश्मन धर्म का भी दुश्मन होता है।
           स्त्रियों के प्रति दम्भी  इस्लामी कट्टरपंथी एवं आतंकवादी उसे पर्दे में कैद करके, अपने बेलगाम हवस को मिटाने और सारी दुनिया में पसर जाने के लिए जीते जी चार बेगमो की मज़ा और मरने के बाद 72 हूरों की लालच में निर्दोष  परधरमियों   की हत्या करके स्त्रियों के प्रति किस मानवीयता का परिचय देते हैं? रही सही कसर मनमर्जी से तलाक देने और औरतों को उपभोग का साधन के अतिरिक्त कुछ भी दर्जा न देने से ही सब कुछ समझ में आ जाता है। कोई भी धर्म परधर्मी के प्रति हिंसा, अत्याचार, जबरन अपने धर्म में शामिल करना नहीं सिखाता। धर्म हमें सिखाता है एक दूसरे से प्रेम करना और प्रेम से रहना।
          इस्लाम के  अच्छे पहलू भी है, लेकिन यह तभी दिखता  है, जब आयतो का शाब्दिक अर्थ नहीं भावार्थ निकाला जाय। शाब्दिक अर्थो के फ़क़ीर  मुल्ला, मौलबी, जेहादी और मातृभूमि के दुश्मन बनते है और भावार्थ के फ़क़ीर अब्दुल कलाम, अशफाकुल्ला जैसे मातृभूमि के वीर सपूत। अब आधुनिक जगत के मूसल मानो को तय करना है कि वे प्रगति के रास्ते पर चलना चाहते है या मध्ययुगीन बर्बर सोच रखने बाले जेहादी।
              आनेबाले कल में खाड़ी देश आर्थिक रूप से तबाह होंगे,  उनकी तबाही आतंक की कमर तोड़ेगी। यह दुनिया के लिए शुभ दिन होगा। ऐसे में इस्लाम तभी बचेगा जब यह मानवीय और आधुनिक होगा, नहीं तो  मदरसों में तालीम पाये इस्लामी झंडाबरदारों के हाथों में चलनेवाले इस्लाम धर्म को मुस्लिम सभ्य समाज स्वयं ही जबरन अंत कर देगा। कुछ भी हो कट्टर सोच ज्यादा दिन नहीं टिकता और उसका  अंत निश्चित है।
            दुनिया को शांतिप्रिय, कल्याणकारी, प्रगतिशील और आधुनिक सोच से परिपूर्ण इस्लाम की जरुरत है, जो लकीर के फ़क़ीर लोगों के वश की बात नहीं। आवश्यकता है कुरान की आयतो का आज की जरुरत के अनुसार अनुवाद की न की मध्ययुगीन अनुवाद में भटकने की।
(ये हमारी निजी सोच है,जिससे सहमत हो तो हमें लिखे, कमेंट अवश्य दे)

              

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